सिख योद्धा हरी सिंह नालवा से खौफ खाते थे अफगान, बच्चे रोते थे तो मां कहती थीं, ‘चुप हो जा वरना नालवा आ जाएगा’
By - मेरठ ख़बर लाइव न्यूज सह संपादक प्रवेश कुमार रोहतगी।। अफ़ग़निस्तान
अफगानिस्तान को सल्तनतों की कब्रगाह कहा जाता है। आज तक कोई भी इस पर पूरी तरह से काबिज नहीं हो सका है। आलम यह है कि सोवियत संघ और अमेरिका जैसी महाशक्तियों को भी यहां से अपनी सेना को वापस बुलाना पड़ा है। लेकिन भारत में एक ऐसा योद्धा पैदा हुआ था, जिसने अफगानों को नाको चने चबवा दिए थे। उस महान योद्धा का नाम था हरी सिंह नालवा। अफगानों के जेहन में हरी सिंह के नाम क्या खौफ था, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अफगान महिलाएं अपने रोते हुए बच्चों को चुप कराने के लिए कहती थीं, चुप हो जाओ, नहीं तो नालवा जा आएगा। आज जानते हैं आखिर कौन थे हरी सिंह नालवा?
हरी सिंह नालवा कौन थे?
हरी सिंह नालवा महाराज रणजीत सिंह की फौज के सबसे भरोसेमंद कमांडर थे। वह कश्मीर, हाजरा और पेशावर के गवर्नर रहे। उन्होंने कई अफगान योद्धाओं को शिकस्त दी और यहां के कई हिस्सों पर अपना वर्चस्व स्थापित किया। साथ ही उन्होंने अफगानों को खैबर दर्रे का इस्तेमाल करते हुए पंजाब में आने से रोका। असल में 1000 एडी से 19वीं सदी की शुरुआत तक खैबर दर्रा ही विदेशी हमलावरों के लिए भारत आने का एकमात्र रास्ता था। इंडियन एक्सप्रेस ने गुरुनानक देव यूनिवर्सिटी अमृतसर के वाइस चांसलर डॉ. डीपी सिंह के हवाले से हरी सिंह नालवा के बारे में और जानकारी दी है।
अजेय माना जाता था अफगानिस्तान
इसके मुताबिक अफगानिस्तान तब भी एक अजेय इलाका माना जाता था। लेकिन हरी सिंह नालवा ने अफगानिस्तान के सीमावर्ती हिस्सों और खैबर दर्रे पर कब्जा करके अफगानों के लिए इस रास्ते से भारत में आने की किसी भी संभावना को खत्म कर दिया। वीसी डॉ. डीपी सिंह ने बताया कि जब अफगान लगातार पंजाब और दिल्ली आ रहे थे तो महाराजा रणजीत सिंह ने अपने साम्राज्य की सुरक्षा के लिए दो तरह की सेनाएं बनाईं। एक सेना को व्यवस्थित रखने के लिए फ्रेंच, जर्मन, इटालियन, रशियन और ग्रीक्स योद्धा नियुक्त किए गए थे। वहीं दूसरी सेना हरी सिंह नालवा के अंडर में थी। यह महाराजा रणजीत सिंह की सबसे बड़ी ताकत थी। हरी सिंह नालवा ने इस सेना के साथ अफगान आदिवासी हाजरा को हजारों बार मात दी। नालवा की बहादुरी को सम्मान देते हुए 2013 में भारत सरकार ने उनके ऊपर एक डाक टिकट जारी किया था।
आखिर अफगान नालवा से इतने डरते क्यों थे?
हरी सिंह नालवा ने अफगानों के खिलाफ कई युद्धों में हिस्सा लिया था। इन लड़ाइयों में उन्होंने अफगानों को उनके कई इलाकों से बेदखल कर दिया था। 1807 में महज 16 साल की उम्र में नालवा ने कसूर (अब पाकिस्तान में) के युद्ध में हिस्सा लिया। इस युद्ध में उन्होंने अफगानी शासक कुतुबुद्दीन खान को शिकस्त दी थी। वहीं 1813 में नालवा ने अन्य कमांडरों के साथ मिलकर अटॉक के युद्ध में हिस्सा लिया और आजिम खान व उसके भाई दोस्त मोहम्मद खान को मात दी। यह दोनों काबुल के महमूद शाह की तरफ से यह युद्ध लड़ रहे थे। सिखों की दुर्रानी पठानों के खिलाफ यह पहली बड़ी जीत थी।
पंजाब-अफगान सीमा पर रखी थी निगाह
1818 में सिख आर्मी ने नालवा के नेतृत्व में पेशावर का युद्ध जीता और नालवा को वहां रुकने के लिए कहा गया था। यहां से उन्हें पंजाब-अफगान सीमा पर निगाह रखने की जिम्मेदारी दी गई थी। 1837 में नालवा ने जमरूद पर कब्जा जमाया, जो कि खैबर पास के रास्ते अफगानिस्तान जाने का रास्ता था। इतिहासकार डॉ. सतीश के. कपूर के मुताबिक मुल्तान, हजारा, मानेकड़ा, कश्मीर आदि युद्धों में अफगानों की शिकस्त ने सिख साम्राज्य को और विस्तार दिया। फिलहाल कपूरथला के हिंदू कन्या कॉलेज के निदेशन डॉ. सतीश के. कपूर बताते हैं इस तरह की जीतों ने अफगानों के मन में नालवा के प्रति दहशत पैदा कर दी थी।
नालवा की इन जीतों का भारत के लिए क्या मतलब रहा?
इतिहासकार बताते हैं कि अगर हरी सिंह नालवा ने पेशावर और उत्तरी-पश्चिमी युद्धक्षेत्र जो कि आज पाकिस्तान का हिस्सा हैं, में युद्ध न जीते होते तो आज यह अफगानिस्तान का हिस्सा होते। ऐसा होने पर पंजाब और दिल्ली में अफगानों की घुसपैठ कभी नहीं रोकी जा सकती थी। इस तरह अफगानिस्तान हमेशा-हमेशा के लिए भारत के लिए सिरदर्द बन जाता।